‘लोग या तो डर के वोट दे रहे हैं, या ग़ुस्से में. और दोनों के लिए किसी फ़साद की ज़रूरत पड़ती है’

मशहूर साहित्यकार राही मासूम रज़ा के एक लेख का अंश

अभी कुछ दिनों के लिए अमरीका जाना पड़ा. पतझड़ का मौसम था. अमरीकी राष्ट्रपति (रोनाल्ड) रीगन का पतझड़ भी मेरे ही सामने शुरू हो गया था. साहब ये अमरीकी राजनीति भी ग़ज़ब की चीज़ है. यह डॉलर के सिवा किसी की भी वफ़ादार नहीं…डॉलर की सभ्यता ये है कि राजनीति देश के लिए नहीं है, देश राजनीति के लिए है और राजनीति उस ‘व्यक्ति’( ‘व्यक्ति’ अब्राहम लिंकन के कथन ‘लोकतंत्र जनता के द्ववारा, जनता का और जनता के लिए”) के लिए है जिसकी स्वतंत्रता का ढिंढोरा डॉलर सरकार पीटती रहती है…हमारा रुपया सींकिया पहलवान है. डॉलर की तरह मुंहज़ोरी तो नहीं कर सकता…परंतु जीवित है और डॉलर के कदम चूमकर आत्महत्या करने को तैयार नहीं. इसलिए ये अंतर्राष्ट्रीय मैदान में डॉलर का विरोध करता है और दुनिया के सारे कमज़ोर देशों का साथ देता है. पर देश के अन्दर डॉलर-डॉलर खेल रहा है. जो आतंकवाद उसके दुश्मन का दुश्मन है, वह आतंकवाद नहीं: जैसे गोरखालैंड की मांग करने वाले. दिल्ली की सरकार उनके ख़िलाफ़ नहीं क्यूंकि वे बंगाल सरकार का तख़्ता पलटने की कोशिश में दिल्ली सरकार के काम आ सकते हैं. यह मत कहिये कि भारत एक लोकतंत्र है और यहां ऐसा नहीं हो सकता. केरल में नम्बूदरी सरकार कैसे उलटी थी? कश्मीर में अब्दुल्लाह की सरकार कैसे उलटी थी? भारतीय लोकतंत्र इस खेल का उस्ताद है. लोकतंत्र का मतलब ये थोड़े ही है कि यहां सचमुच का लोकतंत्र है.

हमारे संविधान में तो और भी बहुत सारी ख़ूबसूरत बातें लिखीं हुई हैं. उसमें लिखा हुआ है कि भारत एक सेक्युलर डेमोक्रेसी है. लेकिन यहां न तो सेक्युलर ही है और न ही डेमोक्रेसी. यहां शिवसेना नेता सर्वश्री बाल ठाकरे शिवाजी पार्क में माइक्रोफोन लगाकर भारतीय मुसलमानों को विदेशी बताते हैं. और उन्हें सीधा करने की बात करते हैं. और मुख्यमंत्री (एसबी चव्हाण) यह बयान देकर चुप हो जाते हैं कि मैं उन्हें ऐसा कहने पर नहीं छोडूंगा. ग़ालिब का कोई माशूक अवश्य ही श्री चव्हाण जैसा रहा होगा; जब ही तो उन्होंने लिखा है:

तेरे वादे पे जिए हम, तो ये जान झूठ जाना

कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता.

और भारतीय राजनीति की सबसे मजेदार बात यहां 8 दिसम्बर (1985) को समाचार पत्रों में छपी. म्युनिसिपल बाई इलेक्शन में एक शिव सैनिक भारतीय जनता पार्टी के आदमी को हराकर चुनाव जीत गया तो उसने यह बयान दिया कि उसकी जीत हिंदूइस्म की जीत है. यह तो रोमनों से भी ज़्यादा रोमन होने की बात हो गई. जहां दो ईंटों के बीच ज़रा से भी जगह नहीं हैं, वहां भी मज़हब का भूत धुआं बनकर घुसने की कोशिश कर रहा है और दुर्भाग्य से सफल भी हो रहा है.

हर धर्म कभी न कभी मनुष्य को रास्ता दिखाने आया था. पर आज हर धर्म अपने मानने वालों को कुछ लोगों के फायदे के लिए राह से भटकाने का काम रहा है. लोग वोटों के दरबे (दड़बे) पर धरम का ताला लागना चाहते हैं कि बस चुनाव के दिन वोटर दरबे से निकाले जाएं, वोट दें और फिर 5 बरस के लिए बंद कर दिए जाएं.

यदि आज 80 फीसदी हिंदुओं को यह समझाने का काम किया जा रहा है कि उनका धर्म ख़तरे में है, तब तो फिर 12 फीसदी मुसलमानों और ढाई प्रतिशत सिखों को यह समझाना बहुत ही आसान है.

इस बात पर याद आया कि 8 दिसम्बर को एक सभा बुलाई गई थी. डॉ. भ. दी. फड़के ने मराठी में किताब लिखी है- ‘स्वातंत्र्य अंदोलनानीत मुसलमान’. भारतीय मुसलमान के नाते मुझे बुलाया गया. जब मैं भाषण देने के लिए उठा तो पहली बार यह सोचकर दुःख हुआ कि मैं मराठी नहीं जानता. जब मैं मराठी जानता होता तब मैं खुलकर बात कर पाता. पर हम हिंदी वालों का दिल इस बात पर बहुत छोटा है. हम यह तो चाहते हैं कि हिंदी देश भर में स्वीकार ली जाए, पर हम देश की दूसरी भाषाओं की न इज्ज़त करते हैं और न ही उनकी ज़रूरत समझते हैं. शायद यही कारण है कि अहिंदी भाषियों के लिए हिंदी को स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है.

डॉ फड़के ने किताब में साबित कर दिया है कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े काम किये हैं पर मुझे इन मौकों (बुलाये जाने) पर हमेशा लगता है कि मुल्ज़िमों के कटघरे में खड़ा हूं और मेरी सफ़ाई का गवाह अपना बयान दे रहा है. मुझे ऐसे में बड़ा अपमान महसूस होता है. इसलिए मैंने उस सभा में कहा कि मुसलामानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ नहीं किया, पर हिन्दुओं ने भी कुछ नहीं किया: और अगर कुछ किया हो तो बताइए. सिखों और ईसाइयों का भी योगदान नहीं है.

स्वतंत्रता आंदोलन में तो हिस्सा लिया था किसानों-मज़दूरों ने; विद्यार्थियों और अध्यापकों ने; क्लर्कों और दुकानदारों ने, रामप्रसाद बिस्मिल हिंदू नहीं, हिंदुस्तानी क्रान्तिकारी थे: भगत सिंह सिख नहीं थे, भारतीय इन्क़लाबी थे. धर्म तो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा था, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ा है…वह कहीं सर्वश्री बाल ठाकरे को नेता बना देता है, कहीं मौलाना बुखारी को. इनके हाथों से धर्म छीन लीजिये तो इन फुकनों की हवा निकल जायेगी.

पंजाब में संत भिंडरावाले उभरे तो कांग्रेस के भीतरी झगड़े की वजह से. इसी तरह श्री ठाकरे बम्बई में श्रीपद अमृत डांगे को हराकर मज़दूरों को कम्युनिस्टों के असर से निकालना चाहते थे. डांगे आख़िरकार हार गए …शिवसेना के हाथ में धर्म और क्षेत्र दोनों की लाठी है और कांग्रेस या किसी और पार्टी के पास इस दोहरे जादू की कोई काट नहीं है.

यह बात सही नहीं है कि 15 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन हो गया था. सही बात ये है कि 15 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन शुरू हुआ था और विभाजन का काम ख़त्म नहीं हुआ है, जारी है. मुझे तो उत्तर प्रदेश और बिहार भी थोड़े ही दिनों के मेहमान दिखाई देते हैं. इन दोनों का भी बंटवारा होने वाला है क्यूंकि दाल बांटने के लिए जूतियां कम पड़ रही हैं

….अपने घर (हिंदुस्तान) में यह कहना चाहता हूं कि घर की याद को ताज़ा रखिये. भाषा भी ठीक, धर्म भी ठीक, पर यह भी सोचिये कि देश भी ठीक है या नहीं. ज़रा सी बात पर धर्म का यूं सड़क पर निकल आना, धर्म और देश दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है.

कल किसी ने शिवाजी की तस्वीर को जूते का हार पहना दिया, तो सज़ा मिली सैकड़ों बेगुनाहों को, जो क़त्ल कर दिए गए. तो सज़ा मिली सैकड़ों दुकानों को जो लूट ली गईं, सज़ा मिली सैकड़ों घरों को जो जला दिए गए.

आज किसी समाचार पक्ष में इस्लाम के पैगम्बर के ख़िलाफ़ कुछ अंट-शंट लिख दिया तो सज़ा मिली बाज़ारों को, सज़ा मिली सरकारी बसों को. सीधी बात ये थी कि उस समाचार पत्र पर मुक़द्दमा चलाया जाता. उस कहानी के लेखक को सज़ा दिलवाने की कोशिश की गई होती, क्यूंकि पैगंबर का अपमान बसों और दुकानों ने तो नहीं किया था.

मगर कुर्सियों के आसमान से नीचे उतर कर कोई सोचने को तैयार नहीं है…ये झगड़े वोट बैंक के दरवाज़े हैं, लोग या तो डर के वोट दे रहे हैं, या ग़ुस्से में. और डर और ग़ुस्से के लिए किसी न किसी फ़साद की ज़रूरत पड़ती है.

(यह लेख 1985 में ‘अभिनव कदम’ पत्रिका में छपा था)

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